प्रतियोगी परीक्षाएँ: एक पहलू यह भी देखें...
आज कल का मौसम परीक्षा परिणामों का मौसम है| हर दिन छात्रगण गहरी उत्सुक्ता से इंटरनेट पर अपना परीक्षा परिणाम ढूँढते हैं और उत्सुक हों भी क्यूँ ना? आख़िर इन रिजल्ट्स के साथ उनकी कितनी मेहनत, सपने और मन्नतें जो जुड़ी होती हैं|हर रोज़ अखबार में अव्वल पृष्ठ पर अव्वल आने वाले विद्यार्थियों के साक्षात्कार छपते हैं; सब ही अपनी सफलता का श्रेय अपने माता पिता और गुरुजनों को देते हैं और "आय आय टी" या "पी एम टी" जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं को अपना लक्ष्य बतलाते है । निश्चित ही ये छात्र सराहना और सत्कार के अधिकारी हैं और इसीलिए वे उस दिन विशेष के लिए अपने क्षेत्र विशेष में नरेन्द्र मोदी या सचिन तेंदुलकर से भी ज्यादा सुर्खियाँ बटोर लेते हैं।
परन्तु क्या हम अगले दिन के अखबार के उस कोने को भी उतने ही ध्यान से पढ़ते हैं जब एक छात्र की आत्महत्या का समाचार छपता है? उसके अन्तिम संदेश में वह "थ्री इडियट्स" के अंदाज़ में "आय क्विट " अर्थात " मैं हार मानता हूँ ", लिखकर इस शिक्षा व्यवस्था के सामने एक प्रश्न चिह्न लगाकर दुनिया से विदा ले लेता है। उसकी माँ रोते बिलखते हुए सबको बतलाती है कि किस तरह उस बालक ने बोर्ड एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए 14-14 घंटे पढाई की थी। वह परीक्षा में क़रीब 95% अंक की अपेक्षा कर रहा था। और जब रिजल्ट आया तो उसने देखा कि वह मात्र 80 प्रतिशत अंक प्राप्त कर पाया। ऐसे में अन्य मेरिट में आए छात्रों की अखबार में फोटो देख वह और निराश हो गया। और तो और वह अपने अत्यन्त प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी परीक्षा के परिणाम को लेकर भी नकारात्मक हो गया। ऐसे में अपनी सारी मेहनत को व्यर्थ और सपनों का गला घुटता देख उसने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय ले लिया। उसका यह कदम बिल्कुल भी उचित और सराहनीय नहीं है किन्तु यह चिंता का विषय तो बन ही गया है क्यूँकि उसकी मृत्यु का कारण सिर्फ़ परीक्षा परिणाम नहीं किन्तु सामाजिक दबाव और पारिवारिक अपेक्षाएँ भी हैं।
अब यह सोचना होगा कि उसके पत्र में लिखे वे दो शब्द मात्र वाक्य भर हैं या उनके पीछे कोई गहरा अर्थ छिपा है। वास्तव में वह और उसके जैसा हर विद्यार्थी इस "सिस्टम" या व्यवस्था से त्रस्त हो चुका है। उसका यह निर्णय पल भर का नहीं किन्तु लंबे समय से मन में चल रहे अन्तर्द्वन्द्व का परिणाम है। ऐसे एक नहीं अनेक विद्यार्थी हैं जो प्रतियोगी परीक्षाओं के जंजाल में फँसे हुए हैं। उदाहरण के लिए एक छात्र को लेते हैं, जो दसवीं पास करते ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जूट जाता है। उसकी सच्चाई तो यह है कि वह बचपन से टेनिस खिलाड़ी या लेखक बनना चाहता था किन्तु नौकरियों की आपाधापी में फँसे इस समाज को देख कर उसे आभास हुआ कि टेनिस का रैकेट पकड़कर या कविताएँ लिखकर वह घर नहीं चला सकता। विदेशों में नौकरी नहीं पा सकता। समाज की अपेक्षाओं को नहीं छू सकता। " पहले भविष्य सुरक्षित करो, उसके बाद कुछ और सोचो" , यही जीवान का नियम है; कम से कम भारतीय समाज में। अतः वह भी इस भेड़ चाल में अपनी कविता की लेखनी और टेनिस का रेकेट छोड़ , फिजिक्स, बायोलॉजी या गणित की मोटी मोटी किताबें उठाता है। उसका परिवार व स्कूल उसे "आई आई टी" और "आय आय एम" के सपने दिखाते हैं। 20-20 लाख के "पैकेज" के ख्वाब सजाते हैं। और वह छात्र झोंक देता है अपने आप को प्रतियोगी परीक्षाओं की ऐसी लढाई में जहां वह अपने को ही खो देता है। अक्सर उसे कोचिंग इत्यादि के लिए घर से दूर दूसरे शहर में जाना पड़ता है और वहां वह अपने आप को अकेला पाता है। वह तथाकथित "प्रोफेशनल " शिक्षकों और शिक्षा संस्थानों की ऐसी राजनीति का भी शिकार बनता है जहां सिर्फ़ चुनिंदा "ए-1" बैच के बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता है और शेष का केवल "मनी बैंक" के रुप में इस्तेमाल होता है। इस जाल में इन कोचिंग और शिक्षा केंद्रों का व्यापार तो बहुत फलता फूलता है, किन्तु कई किशोर छात्रों की नैसर्गिकता और मासूमियत छिन जाती है। फिर भी वह निरंतर पढ़ता जाता है ऐसी परीक्षाओं की तैयारी के लिए जहां लगभग 5 लाख छात्रों में से मात्र 10 हजार का चयन होना है। वह कुछ ऐसी भी परीक्षाओं में बैठता है जहां 2 लाख प्रत्याशी मात्र 160 सीटों के लिए परीक्षा में बैठते हैं और आरक्षण इत्यादि के पश्चात सामान्य वर्ग के विद्यार्थी के लिए मात्र 70 (लगभग) सीटें बचती हैं।
यहां इन विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता और इन परीक्षाओं की गरिमा पर संशय नहीं किया जा रहा किन्तु कुछ सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया जा रहा है। निश्चित ही इन परीक्षाओं का अपना उच्च स्तर और महत्व है और इनमें चयनित होने वाले या "टॉप" आने वाले बधाई और सम्मान के पात्र हैं, किन्तु 5 लाख में से ना चयनित हुए शेष 4.9 लाख के बारे में भी सोचना आवश्यक है। कभी कभी स्थिति यह बनती है कि दो मित्र साथ में इन परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। रिजल्ट वाले दिन एक छात्र कटऑफ़ से मात्र एक अंक अधिक लाने पर चयनित हो जाता है और दूसरा मात्र एक अंक के अन्तर से चयन से वंचित रह जाता है। अब पहले के घर में मिठाइयां बँटती हैं, पिताजी सबको फ़ोन करके शुभ समाचार सुनाते हैं और तो और मीडिया में भी उसके साक्षात्कार लेने की होड़ मची रहती है। यह सब देख दूसरा मित्र निराश होने लगता है। उसे सबसे ज्यदा दुःख तब होता है जब समाज उसकी मेहनत पर प्रश्न चिह्न लगा देता है और उसका स्वयं का परिवार उसका तिरस्कार करने लगता है। आख़िर माता पिता भी क्या करें ये उनकी "सोसायटी" में प्रतिष्ठा का विषय जो बन जाता है! इन सबके बीच सबसे गहरा प्रभाव अगर किसी पर पड़ता है तो वह उस बारहवीं पास किशोर मन पर जो संवेदनशील होने पर या तो विद्रोही प्रवृत्ति अपना लेता है या फिर मृत्यु को...
समाज या राष्ट्र के निर्माण की दॄष्टि से भी देखें तो क्या निश्चितता है कि उन चंद चयनित विद्यार्थियों में देश के अच्छे नागरिक बनने की भी उतनी ही योग्यता है जितनी 2 घंटे में 200 प्रश्नों को सही हल करने की? वास्तव में समस्या उनकी योग्यता या अयोग्यता की नहीं अपितु इस "सिस्टम" की है। इस सिस्टम में किताबें उन्हें इस कद्र घेर के रखती हैं कि उन्हें आटे दाल के भाव भी नहीं पता होते। संवेदनाएं और जागरूकता इस तरह गौण हो जाती हैं कि बड़ी बड़ी घटनाओं की उन्हें ख़बर नहीं होती और उसे जानने के लिए अखबार उठाने का ना तो उनके पास समय बचता है और ना ही रूचि। और जाने भी क्यूँ उनकी तीन घंटे की परीक्षा मे यह थोड़ी न आने वाला है! इस तरह हमारी औपचारिक शिक्षा का उदाहरण ये परीक्षाएँ संपूर्ण व्यक्तित्व का आँकलन नहीं कर पाती।
समाज ने इन प्रतियोगी परीक्षाओं, खास करके इंजीनियरिंग और मेडिकल को गुणवत्ता का ऐसा तय मानक मान लिया है कि किसी विद्यार्थी की बुद्धिमत्ता और प्रतिभा का निर्णय उसकी 'आय आय टी' या 'पी एम टी' की " आल इंडिया रैंक " से कर लिया जाता है। ऐसे में कई विद्यार्थियों को अपनी रूचि व नैसर्गिक प्रतिभा के उपरांत जाकर इसी राह पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ता है या कोई नई राह अपनाने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। यही कारण है कि भारत में सर्वाधिक प्रतिभा और कुशलता होने के बावजूद अनुसंधान और व्यापार के क्षेत्र में कोई खास प्रगति नहीं हुई। शायद इसी वजह से भारत "ब्रेन ड्रेन" की समस्या का भी सामना कर रहा है क्यूँकि पारिवारिक स्थितियों, शासन की नीतियों और सामाजिक अपेक्षाओं के चलते हमारे युवा वर्ग को प्रशासन, रिसर्च या स्वयं के व्यापार के बजाय विदेशी नौकरियां अधिक आकर्षित करती हैं।
हमारे युवा पिढी को चाहिए की वह करियर के सभी विकल्पों को गंभीरता से लें । कोई एक परीक्षा जीवन का एकमात्र अवसर या अंतिम लक्ष्य नहीं होती । वें इस तरह परिस्थितियों से भागे नहीं अपितु एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़ें । और समाज व शासन भी विद्यार्थी वर्ग के उत्थान लिए एक स्वस्थ और स्वच्छंद वातावरण तैयार करें । इस तरह इन प्रतियोगी परीक्षाओ का हौव्वा न बनाये क्यूंकि 5 लाख में से चयनित होने वाले 10 हजार तो खुश हैं किन्तु क्या उन शेष लाखों निराशा-ग्रस्त छात्रों को आत्मविश्वास और स्वाभिमान से सारोबर करने के लिए शासन और समाज के पास कोई उत्तर या समाधान है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
ohh nice :)
ReplyDeleteThanks :)
DeleteGarima if u don't mind I would like to meet you for couples of second & really need some suggestions from you I feel you helped lots of children so if possible please share your couple of seconds pls jai hind , jai bharat
DeleteGarima ek choti si help kar do yaar.puri life tumhara aishan rahega yaar.paper 1,2,3,4 key sample answer share dijiye that will help in increase the score.
DeleteVery well written ....
ReplyDeleteMake one aim in your life. Never let any of your relatives to pressurize their kids giving your example like
"So and So Bhaia/Didi ko dekh aur seekh" . Un relatives ko samjhao ki pressurize karne se performance acha nahi hoga aur to aur bacche ko overall personality pe effect hoga .
very true.. I hope this message gets well conveyed to more and more students and their parents..
DeleteAap bhi ab lekhak (writer) banne ki raah par chalti malum pad rahi hai.
ReplyDeleteBeautifully written :)
Hehe.. Thanks a lot :) lets see how far do I reach on this path..
DeleteDamn my hindi, that should be "lekhika".
ReplyDeleteSee there is a reason you can write hindi and I can't :)
Keep up the good work :)
Hey!
ReplyDeleteAnother good one! :)
With all this admissions hungama started for this year - brings memories of our times preparing for the "competitive exams". Took me a good one hour to read the entire thing, but strikes the right chord. Too good :)
However, i would love to see posts on this post more often. >.<
Jan 7 to June 28 is a long time without a good, intense Hindi read.
Cheers!
Thanks a lot :)
DeleteAll this admission hungama only inspired me to write this post..
I am sure interested and encouraging readers like you will provoke me to write more frequently..:)
Nicely written! You should send it to some Hindi daily! totally worth a read for all those people who fail to comprehend that all kids are not the same and their kid might leave others behind in another field!
ReplyDeleteThanks mam..:) I did try to send it to some Hindi daily news papers .. but couldn't get published..!
Deletewell written ma'am. Is there any way I can connect to you (emailId?). I am really in need of some motivation and right guidance for cse mains.
ReplyDeleteThanks
bahut shanadar mem
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