खेलते बच्चें, खिलते खलिहान के आगे मेरा काँक्रीट का मकान सुना लगता है। उसकी ओड़नी के लाल के आगे, मेरा हर ब्राण्ड फीका लगता है, चौपालों की चर्चाओं के आगे, पार्टी का शोर बचकाना लगता है। सुकून भरी गुलाबी शाम के आगे, शहरी मॉल धुँधला सा लगता है। मेरा देश गाँवो में बसता है, कितना सुंदर लगता है। उसकी मेहनत, पसीने के आगे मेरा जिम झूठा सा लगता है. दिन भर की मीठी थकान के आगे, मेरा ऑफ़िस कोरा सा लगता है उसके संघर्ष, अनुभव के आगे मेरा पद बौना सा लगता है। उसके सरल व्यवहार के आगे मेरा अहंकार अदना सा लगता है। संतोषी मन और धीरज के आगे मेरा दिल बेचैन सा लगता है, मेरा देश गाँवो में बसता है कितना सुन्दर लगता है। इतना सुख, चैन, संतोष है फिर भी वो इतना पिछड़ा क्यूँ रहता है? सारी सुविधाओं के बाद भी, मेरा मन अस्थिर सा रहता है। वो एक समय भूखा क्यूँ रहता है? मेरा पेट फूला क्यूँ रहता है? ऐसा कैसे होता है? कि सबको सबकुछ ना मिलता है, मेरा देश हम सब ...
From an amateur writer's pen into a civil servant's diary.
- Garima Agrawal
Indian Administrative Service (IAS), 2019